जब देश के सबसे बड़े चुनावों की बात होती है, तो हमारी आँखों के सामने रैलियों, भाषणों और करोड़ों मतदाताओं की तस्वीरें तैर जाती हैं। लेकिन एक चुनाव ऐसा भी है, जो इन सबसे दूर, पूरी तरह से पर्दे के पीछे, बेहद शांति और गरिमा के साथ संसद की दीवारों के भीतर होता है। यह चुनाव है भारत के उपराष्ट्रपति का।

जगदीप धनखड़ के उपराष्ट्रपति पद से आकस्मिक इस्तीफे ने राजनीतिक गलियारों में एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है: देश का अगला उपराष्ट्रपति कौन होगा? इस इस्तीफे के साथ ही अटकलों का बाज़ार गर्म है और हर कोई यह जानना चाहता है कि यह चुनावी प्रक्रिया कब तक पूरी होगी। हलचल तेज़ है। वक़्त कम है।
हालांकि अभी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन ख़बरें इशारा कर रही हैं कि चुनाव आयोग अगले 24 घंटों के भीतर ही इस प्रक्रिया का शंखनाद कर सकता है, और संभवतः एक महीने के भीतर देश को अपना नया उपराष्ट्रपति मिल जाएगा।
सोमवार शाम को चिकित्सा कारणों का हवाला देते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भेजे गए धनखड़ के इस्तीफे को मंगलवार को स्वीकार कर लिया गया, जिसके बाद संवैधानिक अनिवार्यता के तहत अगले 60 दिनों के भीतर यह चुनाव कराना लाज़मी है। अब सभी की निगाहें चुनाव आयोग की अधिसूचना और उस राजनीतिक बिसात पर टिकी हैं, जिस पर अगले उपराष्ट्रपति के नाम की मुहर लगेगी।
तो आखिर कौन चुनता है उपराष्ट्रपति को? यहीं पर कहानी में सबसे दिलचस्प मोड़ आता है।
राष्ट्रपति चुनाव में तो देशभर के विधायक भी वोट डालते हैं, लेकिन उपराष्ट्रपति के चुनाव में ऐसा बिल्कुल नहीं होता। यह हक़ सिर्फ़ और सिर्फ़ संसद के सदस्यों का है। यानी लोकसभा और राज्यसभा के सभी सांसद, चाहे वे जनता द्वारा चुनकर आए हों या राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत हुए हों, मिलकर देश के अगले उपराष्ट्रपति का फैसला करते हैं। इसका सीधा सा कारण है – उपराष्ट्रपति का मुख्य काम संसद में होता है, राज्यों की विधानसभाओं में नहीं।
अब सवाल उठता है कि उम्मीदवार कौन बन सकता है? इसके लिए संविधान में कुछ सीधी और स्पष्ट शर्तें हैं:
- वह भारत का नागरिक हो।
- उसकी उम्र 35 साल से ज़्यादा हो।
- और सबसे ज़रूरी, वह राज्यसभा का सांसद बनने की सभी योग्यताएं रखता हो।
यह आखिरी शर्त इसलिए ख़ास है क्योंकि उपराष्ट्रपति का सबसे बड़ा काम ही राज्यसभा की कार्यवाही को संचालित करना है।
वोटिंग का तरीका भी इसे आम चुनावों से बिल्कुल अलग बनाता है। यहाँ ‘मेरा वोट इसे’ वाला सीधा-सपाट सिस्टम नहीं चलता। इसे ‘एकल संक्रमणीय मत’ प्रणाली कहते हैं, जिसका सरल मतलब है कि हर सांसद अपनी पसंद के हिसाब से उम्मीदवारों को रैंक देता है – यानी पहली पसंद कौन, दूसरी कौन, और इसी तरह। यह सिर्फ वोटों की गिनती नहीं, बल्कि पसंद का एक जटिल ताना-बाना है, ताकि विजेता को सबसे मज़बूत और व्यापक समर्थन हासिल हो। और हाँ, यह सब कुछ पूरी तरह से गुप्त मतदान के ज़रिए होता है।
तो अगली बार जब आप भारत के उपराष्ट्रपति का नाम सुनें, तो याद रखिएगा कि उनका चुना जाना किसी राजनीतिक रैली या भाषण का नतीजा नहीं है। यह भारतीय संविधान की एक ख़ूबसूरत और गहरी प्रक्रिया का परिणाम है। एक शांत शक्ति का प्रदर्शन, जो लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूती देता है और राज्यसभा के संरक्षक को चुनता है।