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देवगिरी किला (दौलताबाद) का रहस्य: भारत का सबसे अभेद्य किला जिसे कोई जीत न सका।

महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद, यानी छत्रपति संभाजीनगर शहर से 17 किमी की दूरी पर, 600 फीट ऊंची पहाड़ी के ऊपर बसा हुआ यह मध्यकालीन भारत का सबसे खौफनाक और सबसे सुरक्षित देवगिरी किला है। इस किले के अंदर जाना मतलब अपनी मौत को गले लगाना जैसा था, क्योंकि इसकी 80 फीट गहरी खाई के अंदर जहरीले सांप और भूखे मगरमच्छ दुश्मन सेना का स्वागत करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। देवगिरी किला के सबसे ऊंचे स्थान पर यह 20 फीट लंबी, भारत की दूसरी सबसे बड़ी तोप रखी हुई है। इस तोप की फायरिंग रेंज से डरकर दुश्मन की सेना किले से दूर ही अपना डेरा डालती थी। और जैसे ही दुश्मन सेना इस भूलभुलैया के अंदर आ जाती, तो इसकी संरचना के कारण वे अपने ही सैनिकों को मार डालते थे।

यादव साम्राज्य के राजकुमार, राजा बिल्लम यादव पंचम ने 12वीं सदी में 1187 में इस भव्य देवगिरी किला का निर्माण कराया था। बाद में, 1327 में दिल्ली के मोहम्मद बिन तुगलक ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया था। चलिए जानते हैं कि इस किले को आज तक कोई भी सीधे तौर पर युद्ध करके क्यों नहीं जीत सका और क्यों इसे हमेशा छल और कपट की सहायता से ही हासिल किया गया।

इस देवगिरी किला में जाने के लिए प्रति व्यक्ति ₹25 का टिकट लगता है और 15 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए प्रवेश निःशुल्क है। यह किले का मुख्य प्रवेश द्वार है, जिसे ‘महाकोट प्रवेश द्वार’ कहा जाता है। इस गेट के ऊपर युद्ध के समय हाथियों से बचने के लिए लोहे की नुकीली कीलें लगाई गई हैं, जिन पर जहर लगा होता था। इस कारण कुछ ही देर में हाथी की मौत हो जाती थी। दुश्मन की सेना, घोड़ों और हाथियों की गति को धीमा करने के लिए इस मुख्य प्रवेश द्वार को आधे चाँद के आकार का बनाया गया है।

देवगिरी किला के मुख्य प्रवेश द्वार से अंदर आते ही आपको यहाँ रहने वाले सैनिकों के निवास स्थान नज़र आएँगे। यहीं पर भारतीय पुरातत्व विभाग ने निजाम के जमाने की अलग-अलग आकार की तोपें रखी हुई हैं। इनमें से यह वाली तोप औरंगजेब के जमाने की है, जिसे शुद्ध तांबे से बनाया गया है और इस पर फारसी भाषा में औरंगजेब का नाम लिखा हुआ है। इसी तोप के पास आपको दीवार में दो गड्ढे नजर आएँगे, जिनमें तोप के गोले फंसे हुए हैं।

जैसे ही आप इस परिसर में दाखिल होते हैं, सामने आपको एक प्रवेश द्वार नजर आएगा, जो कि इस किले का असली प्रवेश द्वार है। ठीक उसी के सामने एक और प्रवेश द्वार दिखाई देगा, जो दुश्मन को चकमा देने के लिए बनाया गया नकली प्रवेश द्वार था। जैसे ही दुश्मन सेना इस नकली द्वार से अंदर जाती, तो घात लगाकर बैठी किले की सेना उन्हें वहीं पर मार देती थी। बची हुई सेना जब देवगिरी किला के असली प्रवेश द्वार से अंदर जाने की कोशिश करती, तो सामने दिख रहे दो बुर्जों की दीवारों के ऊपर से किले के सैनिक पत्थर और तीर-कमान चलाकर दुश्मन के कुछ और सैनिकों को मार डालते थे। दुश्मन सेना को चकमा देकर मारने के लिए इस किले के अंदर कुल 52 असली और नकली प्रवेश द्वार बनाए गए हैं।

किले के तीसरे प्रवेश द्वार से अंदर जाते ही सामने आपको एक ऐतिहासिक मंदिर नजर आएगा, जो अब पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। मेरे पीछे आपको इस मंदिर के अवशेष दिखाई देंगे। इस जगह पर किसी जमाने में एक बहुत ही बड़ा और सुंदर मंदिर हुआ करता था, जिसे अलाउद्दीन खिलजी के जमाने में तोड़ा गया था और अब आपको सिर्फ इसका प्लेटफॉर्म ही नजर आएगा। मंदिर के सामने आपको ‘सरस्वती बावड़ी’ नजर आएगी। इस कुएं का पानी विशेष रूप से यहाँ रहने वाले सैनिकों और मंदिर के कार्यक्रमों के लिए इस्तेमाल किया जाता था।

रास्ते में आगे जाते वक्त आपको कुछ सीढ़ियां नजर आएँगी। उन सीढ़ियों से ऊपर आने के बाद आपको यहाँ एक बड़ा-सा ‘हाथी हौद’ तालाब दिखेगा। 1327 में जब मोहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली से अपनी राजधानी हटाकर दौलताबाद यानी देवगिरी किला में स्थापित की थी, तब सभी लोगों को यहाँ आना पड़ा। उन सभी लोगों के पीने के पानी के लिए इस तालाब का निर्माण कराया गया था। बाद में जब राजधानी वापस दिल्ली ले जाई गई, तो यहाँ के सैनिक इस तालाब का प्रयोग स्विमिंग के लिए करने लगे।

हाथी तालाब के बिल्कुल पास में यह यादव कालीन समय का ऐतिहासिक मंदिर बना हुआ है, जिसे अब ‘भारत माता मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। 152 स्तंभों से बने इस मंदिर को इंटरलॉकिंग सिस्टम से बनाया गया था। इस मंदिर के प्रांगण में आपको बहुत सारे स्तंभ नजर आएँगे, जिनके ऊपर किसी जमाने में एक बड़ा-सा सभा मंडप हुआ करता था। बाद में अलाउद्दीन खिलजी के समय में इस मंदिर को तोड़कर यहाँ मस्जिद का निर्माण कराया गया। भारत की आजादी के बाद, 1947 में कुछ विवादों के कारण भारत सरकार ने यहाँ भारत माता की मूर्ति स्थापित की, जिसके बाद इसे ‘भारत माता मंदिर’ कहा जाने लगा।

मेरे पीछे आपको जो मीनार नजर आ रही है, उसे ‘चाँद मीनार’ कहा जाता है। दिल्ली के कुतुब मीनार के बाद यह भारत की दूसरी सबसे ऊंची मीनार है। 210 फीट ऊंची इस चाँद मीनार को 1445 में अलाउद्दीन बहमनी ने देवगिरी किला को जीतने की खुशी में बनवाया था। यह इमारत इंडो-इस्लामिक शैली में बनी हुई है।

यह है देवगिरी किला का छठवाँ ‘कालाकोट प्रवेश द्वार’, जिसे ‘मृत्यु का द्वार’ भी कहा जाता था, क्योंकि दुश्मन की आधी सेना इस द्वार तक पहुँचने से पहले ही खत्म हो जाती थी। बची हुई सेना जब इस द्वार से अंदर जाती, तो आगे जाकर उन सभी की मृत्यु होना तय था। इसीलिए तो इस किले को आज तक कोई जीत न सका।

किले के नौवें प्रवेश द्वार से अंदर जाते ही सामने आपको ‘चीनी महल’ का यह एकमात्र बचा हुआ हिस्सा नजर आएगा, क्योंकि यह महल अब पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। इस चीनी महल को शाहजहाँ ने अपने खास मेहमानों के लिए बनवाया था, लेकिन बाद में औरंगजेब ने इसे शाही जेल में बदल दिया, जहाँ मराठा और कई मुगल राजाओं को कैद करके रखा गया था।

देवगिरी किला के अंदर स्थित इस बुर्ज पर 14 टन वजन की ‘मेंढा तोप’ रखी हुई है। इस तोप पर फारसी भाषा में ‘तोहफे किला शिकन’ लिखा है, जिसका मतलब है ‘किले को ध्वस्त करने वाली तोप’। पंचधातु से बनी यह तोप लगातार चलाने के बावजूद कभी गर्म नहीं होती थी। इसे नीचे लगे एक्सेल पर रखकर 180 डिग्री के एंगल पर घुमाकर फायर किया जाता था। इस तोप की मारक क्षमता 9 किलोमीटर की है और इसे अफगानिस्तान से आए कारीगरों ने बनाया था।

यहाँ से मुख्य किले के ऊपर तक जाने के लिए 70 फीट चौड़ी खाई पर बने एक पुल के ऊपर से जाना होता है। उस जमाने में यहाँ चमड़े का पुल हुआ करता था। जैसे ही दुश्मन सेना उस पुल पर आती, तो उसे खींच लिया जाता था और सारी सेना 80 फीट गहरी खाई में गिर जाती, जहाँ भूखे मगरमच्छ और जहरीले सांप हमेशा उनके इंतजार में रहते थे।

बहुत सारी मुश्किलों को पार करते हुए बची-खुची दुश्मन सेना को किले के ऊपर तक जाने के लिए बने एकमात्र प्रवेश द्वार से अंदर जाना होता था। और यहीं से खूनी खेल की शुरुआत हो जाती थी, क्योंकि इसी जगह से देवगिरी किला के भूलभुलैया की शुरुआत होती है। दुश्मन के सैनिकों को इस किले के अंदर दाखिल होने के लिए एक छोटी-सी सुरंग के जरिए घुटनों के बल बैठकर आना होता था। जैसे ही वे अंदर आने के लिए गर्दन बाहर निकालते, तो यहाँ घात में बैठे सैनिक उनकी गर्दन पर तलवार चला देते थे और उनके शरीर को एक सुरंग के जरिए 80 फीट गहरी खाई में फेंक दिया जाता था, जहाँ मगरमच्छ दावत उड़ाते थे।

ऊपर की तरफ आपको जो उजाला नजर आ रहा है, उस जगह पर 1950 तक प्राकृतिक रूप से बनी पत्थर की चट्टान हुआ करती थी, जिससे यहाँ पूरा अँधेरा रहता था। यह सीढ़ियां भारतीय पुरातत्व विभाग ने बनाई हैं। जैसे ही दुश्मन सेना इस प्रवेश द्वार के पास आती, उन्हें दो अलग-अलग रास्ते और ऊपर से सूर्य का प्रकाश नजर आता। वे पल भर खड़े होकर सोच ही पाते कि किस तरफ जाना है, उतने में ही ऊपर से खौलता हुआ तेल और पानी उन पर डाल दिया जाता था।

यादव काल में पहाड़ी की चट्टानों को काटकर इस अंधेरी भूलभुलैया को बनाया गया था। यहाँ इस तरह के कई रास्ते बने हुए हैं। जब दुश्मन सेना अलग-अलग टुकड़ियों में बंटकर इन गलियारों से जाती, तो ये रास्ते आगे जाकर एक जगह मिल जाते। यहाँ पूरी तरह से अँधेरा होने के कारण दुश्मन सेना अपने ही सैनिकों को दुश्मन समझकर मार डालती थी। रोशनी का यह इंतजाम भारतीय पुरातत्व विभाग ने किया है।

पहाड़ की चट्टानों को तराशकर बनाई गई इन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने के बाद आप एक लोहे के प्रवेश द्वार से बाहर की तरफ आ जाते हैं, जो कि देवगिरी किला के ऊपर आने का इकलौता रास्ता है। इमरजेंसी के समय इस प्रवेश द्वार को बंद करके यहाँ से जहरीला धुआं छोड़कर दुश्मन सेना को मार दिया जाता था।

इस तरह, देवगिरी किला के खतरनाक सुरक्षा तंत्र के कारण दुश्मन का एक भी सैनिक ऊपर तक नहीं आ पाता था। इसी कारण से इस किले को सीधी लड़ाई में आज तक कोई नहीं जीत सका। लेकिन 1296 में अलाउद्दीन खिलजी ने 6 महीने की घेराबंदी के बाद किलेदार को रिश्वत देकर इस किले को छल और कपट से हासिल कर लिया था।

गणेश जी के मंदिर में दर्शन करने के बाद, वहाँ से 10 से 20 मिनट की थका देने वाली सीढ़ियां चढ़कर आने पर ऊपर की तरफ आपको यह अष्टकोणीय ‘बारादरी महल’ नजर आएगा। इस खूबसूरत महल को मुगल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था। इसे विशेष रूप से गर्मियों में ‘समर पैलेस’ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। इस बारादरी महल के अंदर राजा का दरबार, महफिल और रहने की भी सुविधा हुआ करती थी। इस महल के सामने 12 झरोखे बने हुए हैं, इसलिए इसे ‘बारादरी महल’ कहा जाता है।

देवगिरी किला की सबसे ऊंची चोटी पर स्थित इस बड़े से बुर्ज के ऊपर भारत की दूसरी सबसे बड़ी तोप रखी हुई है, जो 20 फीट लंबी है। इस तोप को ‘दुर्गा तोप’ कहा जाता है। आसपास के परिसर से आने वाली दुश्मन सेना की टुकड़ियों को इसी तोप से उड़ा दिया जाता था। इस तोप की मारक क्षमता से डरकर दुश्मन सेना इस किले से दूर ही अपना डेरा डाला करती थी।

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